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Tom Rittberg




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कवक एक प्रकार के जीव हैं जो अपना भोजन सड़े गले मृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। ये संसार के प्रारम्भ से ही जगत में उपस्थित हैं। इनका सबसे बड़ा लाभ इनका संसार में अपमार्जक के रूप में कार्य करना है। इनके द्वारा जगत में से कचरा हटा दिया जाता है।

कवक जीवों का एक विशाल समुदाय है जिसे साधारणतया वनस्पतियों में वर्गीकृत किया जाता है। इस वर्ग के सदस्य पर्णहरित रहित होते हैं और इनमें प्रजनन बीजाण्वों द्वारा होता है। ये सभी सूकाय वनस्पतियाँ हैं, अर्थात् इनके शरीर के ऊतकों में कोई भेदकरण नहीं होता; दूसरे शब्दों में, इनमें जड़, तना और पत्तियाँ नहीं होतीं तथा इनमें अधिक प्रगतिशील पौधों की भाँति संवहनीयतंत्र नहीं होता। पहले इस प्रकार के सभी जीव एक ही वर्ग कवक के अंतर्गत परिगाणित होते थे, किन्तु अब वनस्पति विज्ञानविदों ने कवक वर्ग के अतिरिक्त दो अन्य वर्गों की स्थापना की है जिनमें क्रमानुसार जीवाणु और श्लेष्मोर्णिका हैं। जीवाणु एककोशीय होते हैं जिनमें प्रारूपिक नाभिक नहीं होता तथा श्लेष्मोर्णिक की बनावट और पोषाहार जन्त्वों की भाँति होता है। कवक अध्ययन के विज्ञान को कवक विज्ञान कहते हैं।

कुछ लोगों का मत है कि कवक की उत्पत्ति शैवाल में पर्णहरित की हानि होने से हुई है। यदि वास्तव में ऐसा हुआ है तो कवक को पादप सृष्टि में रखना उचित ही है। दूसरे लोगों का विश्वास है कि इनकी उत्पत्ति रंगहीन कशाभ या प्रजीवा से हुई है जो सदा से ही पर्णहरित रहित थे। इस विचारधारा के अनुसार इन्हें वानस्पतिक सृष्टि में न रखकर एक पृथक सृष्टि में वर्गीकृत किया जाना चाहिए।

वास्तविक कवक के अंतर्गत कुछ ऐसी परिचित वस्तुएँ आती हैं, जैसे गुँधे हुए आटे से पावरोटी बनाने में सहायक एककोशीय खमीर, बासी रोटियों पर रूई की भाँति उगा फफूँद, चर्म को मलिन करनेवाले दाद के कीटाणु, फसल के नाशकारी रतुआ तथा कंडुवा और खाने योग्य एव विषैली कुकुरमुत्ते या खुंभियाँ को मलिन करनेवाले दाद के कीटाणु, फसल के नाशकारी रतुआ तथा कंडुवा और खाने योग्य एव विषैली कुकुरमुत्ते या खुंभियाँ

कवक की जातियों की संख्या लगभग 80 से 90 हजार तक है। संभवत: कवक सबसे अधिक व्यापक हैं। जलीय कवक में एकलाया (Achlaya), सैप्रोलेग्निया (Saprolegnia), मिट्टी में पाए जानेवाले म्यूकर (Mucor), पेनिसिलियम (Penicillium), एस्परजिलस (Aspergillus), फ़्यूज़ेरियम (Fusarium) आदि; लकड़ी पर पाए जानेवाले मेरूलियस लैक्रिमैंस (Merulius lachrymans); गोबर पर उगनेवाले पाइलोबोलस (Pilobolus) तथा सॉरडेरिया (Sordaria); वसा में उगनेवाले यूरोटियम (Eurotium) और पेनिसिलियम की जातियाँ हैं। ये वायु तथा अन्य जीवों के शरीर के भीतर या उनके ऊपर भी पाए जाते हैं। वास्तव में विश्व के उन सभी स्थानों में कवक की उत्पत्ति हो सकती है जहाँ कहीं भी इन्हें कार्बनिक यौगिक की प्राप्ति हो सके। कुछ कवक तो लाइकेन (lichen) की संरचना में भाग लेते हैं जो कड़ी चट्टानों पर, सूखे स्थान में तथा पर्याप्त ऊँचे ताप में उगते हैं, जहाँ साधारणतया कोई भी अन्य जीव नहीं रह सकता।

कवक की अधिकाधिक वृद्धि विशेष रूप से आर्द्र परिस्थितियों में, अँधेरे में या मंदप्रकाश में होती है। इसीलिए छत्रक अधिक संख्या में आर्द्र और उष्ण तापवाले जंगलों में उगते हैं।

कुछ एककोशिकीय जातियों, उदाहरणार्थ खमीर, के अतिरिक्त अन्य सभी जातियों का शरीर कोशिकामय होता है, जो सूक्ष्मदर्शीय ((माइक्रोस्कोपिक)) रेशों से निर्मित होता है और जिससे प्रत्येक दिशा में शाखाएँ निकलकर जीवाधार (substratum) के ऊपर या भीतर फैली रहती हैं। प्रत्येक रेशे को कवकतंतु (hypha) कहा जाता है और इन कवकतंतुओं के समूह को कवकजाल (mycelium) कहते हैं। प्रत्येक कवकतंतु एक पतली, पारदर्शी नलीय दीवार का बना होता है जिसमें जीवद्रव्य का एक स्तर होता है या जो जीवद्रव्य से पूर्णतया भरा होता है। ये शाखी या अशाखी रहते हैं और इनकी मोटाई 0.5 माइक्रान से लेकर 100 माइक्रान तक होती है (1 माइक्रान = एक मिलीमीटर का हजारवाँ भाग)।

जीवद्रव्य या तो अटूट पूरे कवकतंतु में फैला रहता है जिसमें नाभिक (nucleus) बिना किसी निश्चित व्यवस्था के बिखरे रहते हैं, अन्यथा कवकतंतु दीवारों का पट (septum) द्वारा विभाजित रहते हैं जिससे संरचना बहुकोशिकीय होती है। पहली अवस्था को बहुनाभिक (coenocytic) तथा दूसरी को पटयुक्त (septate) अवस्था कहते हैं। प्रत्येक कोशिका में एक, दो या अधिक नाभिक हो सकते हैं।

अधिकांश कवक के तंतु रंगहीन होते हैं, किंतु कुछ में ये विभिन्न रंगों से रँगे होते हैं।

साधारण कवक का शरीर ढीले कवकतंतुओं से निर्मित होता है किंतु कुछ उच्च कवकों के जीवनवृत्त की कुछ अवस्थाओं में उनसे कवकजाल घने होकर सघन ऊतक बनाते हैं जिसे संजीवितक (plectenchyma) और कूटजीवितक (preudoparenchyma)।

दीर्घितक ढीला ऊतक होता है, जिसमें प्रत्येक कवकतंतु अपना अपनत्व बनाए रखता है। कूटजीवितक में सूत्र काफी घने होते हैं तथा वे अपना ऐकात्म्य खो बैठते हैं और काटने पर उच्चवर्गीय पौधों के जीवितक कोशों (Parenchyma cells) के समान दिखाई पड़ते हैं। इन ऊतकों से विभिन्न प्रकार के वानस्पतिक और प्रजनन विन्यास (reproductive structure) का निर्माण होता है।

कवक की बनावट चाहे कितनी ही जटिल क्यों न हो, पर वे सभी कवकतंतुओं द्वारा ही निर्मित होते हैं। ये तंतु इतने सघन होते हैं कि वे ऊतक के रूप में प्रतीत होते हैं, किंतु कवकों में कभी भी वास्तविक ऊतक नहीं होता।

कुछ जातियों को छोड़कर कवकों की कोशिकाभित्तियों की रासायनिक व्याकृतियाँ (chemical composition) विभिन्न जातियों में भिन्न-भिन्न होती हैं। कुछ जातियों की कोशिकाभित्तियों में सेलुलोस या एक विशेष प्रकार का कवक सेल्यूलोस पाया जाता है तथा अन्य जातियों में काइटिन (chitin) कोशिकाभित्ति के निर्माण के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी होता हैं। कई कवकों में कैलोस (callose) तथा अन्य कार्बनिक पदार्थ भी कोशिकाभित्ति में पाए गए हैं।

कवकतंतु में नाभिक के अतिरिक्त कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) तैलविंदु तथा अन्य पदार्थ उपस्थित रहते हैं, उदाहरणार्थ कैल्सियम ऑक्सलेट, (calcium oxalate) के रवे, प्रोटीन कण इत्यादि। प्रत्येक जाति में प्रोटोप्लास्ट (protoplast) हरिमकणक (chloroplast) रहित होता है। यद्यपि कोशिकाओं में स्टार्च का अभाव होता है, तथापि एक दूसरा जटिल पौलिसैकेराइड ग्लाईकोजन (polysaccharide glycogen) पाया जाता है।

पर्णहरिम की अनुपस्थिति के कारण कवक कार्बन डाइ-ऑक्साइड और जल द्वारा कार्बोहाइड्रेट निर्मित करने में असमर्थ होते हैं। अत: अपने भोज्य पदार्थो की प्राप्ति के लिए अन्य वनस्पतियों, जंतुओं तथा उनके मृत शरीर पर ही आश्रित रहते हैं। इनकी जीवनविधि और संरचना इसी पर आश्रित हैं। यद्यपि कवक कार्बन डाइ-ऑक्साइड से शर्करा निर्मित करने में पूर्णतया असमर्थ होते हैं तथापि ये साधारण विलेय शर्करा से जटिल कार्बोहाइड्रेट का संश्लेषण कर लेते हैं, जिससे इनकी कोशिकाभित्ति (cell wall) का निर्माण होता है। यदि इन्हें साधारण कार्बोहाइड्रेट और नाइट्रोजन यौगिक (nitrogenous compound) दिए जाएँ तो कवक इनसे प्रोटीन और अंतत: (protoplasm) निर्मित कर लेते हैं।

मृतोपजीवी (saprophyte) के रूप में कवक या तो कार्बनिक पदार्थों, उत्सर्जित पदार्थ (waste product) या मृत ऊतकों को विश्लेषित करके भोजन प्राप्त करते हैं। परजीवी (parasite) के रूप में कवक जीवित कोशों पर आश्रित रहते हैं। सहजीवी (symbiont) के रूप में ये अपना संबंध किसी अन्य जीव से स्थापित कर लेते हैं, जिसके फलस्वरूप इस मैत्री का लाभ दोनों को ही मिल जाता है। इन दिनों प्रकार की भोजनरीतियों के मध्य में कुछ कवक आते हैं जो परिस्थिति के अनुसार अपनी भोजनप्रणाली बदलते रहते हैं।

विभिन्न कवकों के लिए विभिन्न खाद्य सामग्री की आवश्यकता होती है। कुछ कवक सर्वभोजी होते हैं तथा किसी भी कार्बनिक पदार्थ से अपना भोजन प्राप्त कर सकते हैं, जैसे ऐस्परजिलस (Aspergillus) और पेनिसिलियम। अन्य कवक अपने भोजन में विशेष दुस्तोष्य होते हैं। कुछ सदा पराश्रयी के पोषण के लिए जीवित प्रोटोप्लाज़्म की ही नहीं वरन् किसी विशेष जाति के आधार की भी आवश्यकता होती हैं।

मृतोपजीवी (saprophyte) कवक के कवकतंतु आधार के निकट संस्पर्श में आकर अपना भोजन अपने रेशों की दीवार से विसरण (diffusion) द्वारा प्राप्त करते हैं।

पराश्रयी (parasite) कवक जंतुओं और वनस्पतियों की कोशिकाओं से पोषित होते हैं और इस प्रकार ये अपने पोषक को हानि पहुँचाने हैं, जिसके कारण वनस्पतियों एवं जंतुओं में व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। कवकजाल प्राय: पोषकों के धरातल पर अथवा पोषकों के भीतरी स्थानों में अंत: कोशिका (intercellular) या पोषकों के कोशों को छेदकर (intracellular) उगते हैं कवकतंतु के अग्रभाग से एक प्रकार के एंज़ाइम (enzyme) का स्राव होता है जिससे इन्हें कोशकाभित्ति के बेधन तथा विघटन में सहायता प्राप्त होती है। अंत: कोशिकतंतु एक विशेष प्रकर की शाखाओं को पोषक कोशिकाओं में भेजते हैं जिन्हें आशोषांग (haustoria) कहते हैं। ये आशोषांग अति सूक्ष्म छिद्रों द्वारा कोशिकाभित्ति (cell wall) में प्रवेश करते हैं। ये विशेषित अवशोषक अंग (absorbing organs) होते हैं, जो विभिन्न जातियों में विभिन्न प्रकार के होते हैं। जंतुओं में पाए जानेवाले पराश्रयी कवकों में अवशोषकांग नहीं पाए गए हैं।

सदा पराश्रयी (obligate parasite) अपना भोजन कोशिकाओं के जीवित जीवद्रव्य से ही प्राप्त करते हैं, किंतु वैकल्पिक पराश्रयी (facultative parasite) अधिकतर पराश्रयी जीवन व्यतीत करते हैं परंतु कभी-कभी मृतोपजीवी रूप से भी अपना भोजन प्राप्त करते हैं।

दक्षिणी अफ्रीका में कुछ चींटियाँ तथा दीमकें कवकों का केवल आहार ही नहीं करतीं वरन् उनको उगाती भी हैं। ये जीव विशेष प्रकार के कार्बनिक पदार्थो को इकट्ठा कर अपने घोसलों में बिछाते हैं जिनपर कवक अच्छी तरह उग सकें। कुछ दशाओं में ये कवकों का रोपण करते हैं। विद्वानों का ऐसा विचार है कि एक जाति की चींटी अपना विशेष कवक उत्पन्न करती हैं।


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